परिकल्पना:
संविधान, समावेश,
साम्य तथा
लोकतंत्र
हम जानते हैं कि, देश में ग़रीबी एक विकराल
रूप धारण कर चुकी है! ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट
के अनुसार “भारत में चंद लोगों के
अविश्वसनीय आर्थिक लाभ के बावजूद, गरीबी और असमानता बड़े पैमाने पर है!
जहाँ अरबपतियों
की संख्या दस गुणाबढ़ी है, वहीं समाज के सबसे गरीब और सबसे कमजोर
समूहों की जरूरतों पर सरकारी खर्च आश्चर्यजनक ढंग से कम बनी हुई है! उदाहरण स्वरुप, स्वास्थ्य
सेवा पर भारत के सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ एक प्रतिशत है!
हम इस बात से भी अवगत हैं कि, देश का संविधान
व्यापक न्याय, विचारों की स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे
के सिद्धांतों पर आधारित है!
यह न केवल भेदभाव के समस्त रूपों पर प्रतिबंध लगाता है, बल्कि राज्य को संविधान
के मूल्यों और सिद्धांतों को सक्रियता के साथ लागू करने के लिए प्रोत्साहित भी करता
है. एक कल्याणकारी राज्य के रूप में और मौलिक अधिकारों
के रक्षार्थ, सभी भारतीयों के कल्याण को सुनिश्चित करने हेतु नीति निर्धारण
करने की जिम्मेदारी राज्य की है तथा संविधान इसके लिए आवश्यक शक्ति भी प्रदान करता
है!
संविधान ने सकारात्मक कार्रवाई को राज्य की
जिम्मेदारी के रूप में प्रतिष्ठापित किया है! जहाँ एक तरफ़ अनुच्छेद 15 और
16 भेदभाव को निषेध करता है, वहीँ दूसरी तरफ़ राज्य को शैक्षिक और आर्थिक
रूप से पिछड़े वर्गों हेतु विशेष प्रावधान बनाने के लिए आवश्यक शक्ति भी प्रदान करता
है! भारतीय
संविधान का अनुच्छेद 21 देश के हर
नागरिक को शोषण मुक्त एवं
मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्रदान करता है! इसका अर्थ यह होता है कि
संविधान का अनुच्छेद 21, एक इंसान को
सम्मानपूर्वक ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए ज़रूरी हर चीज़ की गारंटी देता है, जिसमें
शिक्षा एवं आजीविका भी शामिल है! सुप्रीम कोर्ट के सामने जब भी किसी नागरिक के
गरिमापूर्ण जीवन सम्बन्धी मामले आये, उन सभी में हमेशा एक उदार दृष्टिकोण तथा
विचार को अपनाते हुए निर्णय दिए गए!
सर्वोच्च न्यायालय ने उन्नी कृष्णन मामले में अनुच्छेद 21 को मौलिक
अधिकारों का हृदय बताया, तथा इसके कार्य-क्षेत्र का विस्तार करते हुए कहा कि, जीवन
के अधिकार में शिक्षा का अधिकार भी शामिल है!
सुप्रीम कोर्ट ने 7 जून 1993 को दोहराया की अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के
अधिकार में आजीविका का अधिकार भी शामिल है! मेनका
गाँधी बनाम भारत संघ के मामले में निर्णय दिया गया कि, जीवित रहने का
अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीवित
रहने का अधिकार केवल पशु जैसे अस्तित्व तक सीमित नहीं है (AIR 1981 SC 746). न्यायलय ने यह भी कहा है की कर्मकारों को न्यूनतम
मजदूरी का भुगतान न करना भी उन्हें मूलभूत मानवीय गरिमा के साथ जीवित रहने के
अधिकार से वंचित करने के तुल्य है और यह अनुच्छेद २१ का उल्लंघन है! (पीपुल्स
यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ , AIR 1982 SC
1473)
उदारीकरण पूर्व तथा साम्य पश्चात् के मुद्दे:
हम जानते हैं कि, उदारीकरण पूर्व अवधि के दौरान, अर्थव्यवस्था अत्यधिक नियंत्रित और विनियमित
थी! संसाधन सीमित और विकास अल्पतम था! अर्थव्यवस्था विनिर्माण क्षेत्र से कुछ योगदान
के साथ कृषि पर काफी हद तक निर्भर थी! सेवा क्षेत्र लगभग अनुपस्थित था! एक 'कल्याणकारी राज्य' और
मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी वाले राज्य होने के बावजूद, तात्कालिक अर्थशास्त्रियों ने मानव विकास के लिए 'आकस्मिक
या नीचे मिलने' वाले दृष्टिकोण को अपनाया! इसका यह अर्थ है की हाशिए पर चले गए लोगों का उत्थान सामान्य विकास के परिणाम
स्वरूप स्वतः होगा! तब अर्थव्यवस्था पर्याप्त संसाधनों का सृजन
नहीं कर पाया या देश के लोग बुनियादी अधिकारों को प्रोत्साहित करने हेतु राज्य की जवाबदेही
तय नहीं कर पाए! मामला चाहे जो
भी हो, इसका परिणाम अत्यंत गरीबी और अभाव, उच्च निरक्षरता और
घटिया स्वास्थ्य सेवा था!
उदारीकरण का उद्दयेश्य राज्य को पर्याप्त संसाधनों की प्रदानगी थी, जिसके द्वारा
विकास घाटे को काबू करने हेतु बड़ा कल्याणकारी उपाय आरंभ करने में राज्य सक्षम हो सके!
इस सुधार का मुख्य ध्येय अर्थव्यवस्था पर राज्य
के नियंत्रण को कम करना था! किन्तु यह साम्य को सुनिश्चित करने में विफल रहा है तथा
जनसाधारण की सम्मानजनक भागीदारी सुनिश्चित करने में भी विफल रहा है! इसलिए, कुछ लोग बड़ा हिस्सा ले गए और विशाल जनसाधारण
को बचे खुचे पर ही धींगा मुश्ती करने के लिए छोड़ दिया गया! अधिकारहीन और कमजोर की दोहरी त्रासदी थी! नियंत्रित और विनियमित अर्थव्यवस्था के युग
के दौरान, संसाधन और अवसर थोड़े
और पहुँच के बाहर थे! अधिकारहीन बराबर क्षमताओं और कौशल
के बिना, योग्यतम की उत्तरजीविता की इस लड़ाई में परास्त
थे! उदारीकरण के बाद, जबरदस्त
संसाधनों और अवसरों को उन्मुक्त किया गया था! लेकिन, यहां भी विकास की कहानी में
अधिकारहीन शामिल नहीं थे और उनका बेरहमी से शोषण किया जा रहा था तथा उनको इस से बाहर
रखा जा रहा था और राज्य अपनी जिम्मेदारी से भागती नज़र आ रही थी!
'भारत उदय' की कहानी भी
उन चंद लोगों की ही कहानी है, जो धन के केन्द्रीकरण तथा जनता को स्वयं के हाल पर
छोड़ देने में सफल रहे थे! यह लोकतंत्र के वास्तविक मिज़ाज के विपरीत है, जिसका कार्य राष्ट्रीय विकास
की प्रक्रिया में सभी की भागीदारी और समावेश को सुनिश्चित करना है! एम.पी.जे. का मत है कि, समावेशन के प्रति विफल
'आकस्मिक' दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के बजाए, एक
'नीति संचालित दृष्टिकोण' अपनाया जाए!
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